‘मणिकार्णिका’ में कंगना रनौत की एक्टिंग और डायरेक्शन तो उम्दा है, लेकिन एडिंटिंग में रह गई थोड़ी ‘कसर’

जब भी पीरियड ड्रामा फिल्मों की बात आती है, तो ज़ेहन में के आसिफ, संजय लीला भंसाली और आशुतोष गोवारिकर के बाद अब एसएस राजामौली का नाम आता है। इसी जॉनर में एक नई फिल्म आई है, जो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की अमर गाथा को सिल्वर स्क्रीन पर पेश कर रही है। नाम है ‘मणिकार्णिका : द क्वीन ऑफ झांसी’। फिल्म को पहले कृष और बाद में कंगना रनौत ने निर्देशित किया है। कई मायनों में यह फिल्म खास है, लेकिन दर्शकों के लिए कैसा अनुभव होने वाला है, आइए करते हैं समीक्षा। 

 फिल्म मणिकार्णिका द क्वीन ऑफ झांसी

फिल्म : मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी
कलाकार : कंगना रनौत, अंकिता लोखंडे, जिस्सू सेनगुप्ता, डैनी डेन्जोंगपा, मोहम्मद जीशान अयूब, सुरेश ओबेरॉय, कुलभूषण खरबंदा 
निर्देशक : कंगना रनौत और कृष
संगीत : शंकर, अहसान, लॉय
जॉनर : पीरियड ड्रामा
रेटिंग- 4

वीरांगना लक्ष्मीबाई के किरदार में कंगना रनौत ने सिल्वर स्क्रीन पर हुंकार भरी है। एक्टिंग के साथ निर्देशन में भी हाथ आजमाया है। कैसी बनी है फिल्म, आइए करते हैं समीक्षा।

कहानी
फिल्म का कालखंड 1800 का है। फिल्म की शुरुआत मणिकर्णिका (कंगना रनौत) के जन्म से शुरू होती है। यूं तो मणिकार्णिका जन्म से ब्राह्मण रहती हैं, लेकिन शस्त्र चलाने में किसी क्षत्रिय सी निपुण रहती हैं। उनकी इसी योग्यता को देखने के बाद झांसी के राजा गंगाधर राव (जिस्सू सेनगुप्ता) का रिश्ता आता है और फिर उनसे शादी हो जाती है।

शादी के बाद उनको नया नाम ‘लक्ष्मीबाई’ दिया जाता है। शादी के बाद सबकुछ ठीक-ठाक ही चल रहा होता है। कुछ दिनों बाद लक्ष्मीबाई एक बेटे की मां भी बन जाती हैं, लेकिन महज चार महीने बाद वह बच्चा मर जाता है। फिर किसी गंभीर बीमारी की चपेट में आने से पति गंगाधर राव का भी निधन हो जाता है।

मरने से पहले गंगाधर राव ने झांसी को उत्तराधिकारीविहिन होने से बचाने के लिए एक दत्तक पुत्र लेने का फैसला लिया और फिर दत्तक पुत्र लेने के कुछ दिनों के बाद उनका निधन हो जाता है। गंगाधर राव के निधन के बाद अंग्रेज़ों ने झांसी को हड़पने के कोशिशें तेज़ कर दीं। लेकिन अपने राज्या को बचाने के लिए लक्ष्मीबाई खुद गद्दी पर बैठ जाती हैं और ऐलान कर देती हैं कि वो अपनी झांसी किसी को नहीं देंगी।

इसके बाद लक्ष्मीबाई का असली संघर्ष शुरू होता है। अपनी मातृभूमि को बचाने के लिए वो विदेशियों से युद्ध करती हैं और शहीद हो जाती हैं। सबकुछ सिलसिलेवार तरीके से देखने के लिए फिल्म देखनी होगी।

समीक्षा 

इस फिल्म में सबसे पहले किसी का जिक्र होना बनता है, तो वह है कंगना रनौत। जो जुनून और दृढ़ विश्वास उनमें दिखता है, उसे देख कर लगता है कि कंगना से बेहतर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का किरदार कोई नहीं निभा सकता। तलवारबाजी करते और दुश्मनों को तबाह करने वाले सीन्स में वो जान डाल देती हैं।

कंगना के अलावा बाकी कलाकारों ने भी बेहतरीन काम किया है। चाहे वो डैनी हो या फिर जिस्सू, सुरेश ऑबेरॉय हो या कुलभूषण खरबंदा। अंकिता लोखंडे से लेकर जीशान अयूब भी अपने किरदारों के साथ न्याय करते दिखे।
फिल्म का फर्स्टहॉफ कुछ धीमा सा है, जिसको एडिटिंग की ज़रूरत थी। वहीं बेवजह का आइटम नंबर समझ से परे है। हालांकि, सेकेंड हॉफ में मामला अच्छा रहा।

विजयेंद्र प्रसाद का स्क्रीनप्ले टू द पॉइंट ही रहा, लेकिन प्रसून जोशी के लिखे डायलॉग्स ने समा बांध दिया। कई संवाद पर तो थिएटर में तालियां बजीं।फिल्म में जान डालने का काम उसके बैकग्राउंड म्यूजिक ने किया, जो शानदार था।

वीएफएक्स और कैमरावर्क भी अच्छा रहा। कंगना फिल्म में हद खूबसूरत दिखीं। चलते-चलते निर्देशन की भी बात कर लेते हैं। निर्देशन अच्छा हुआ है और इसके लिए कंगना की तारीफ होनी चाहिए।

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