फिल्म समीक्षा : साहो

एक ऐसी फिल्म जिसका न सिर्फ़ अरसे से बेसब्री से इंतज़ार था, बल्कि उसे लेकर लगातार ख़बरों का बाज़ार भी गर्म रहा है। फिल्म ‘बाहुबली’ से धाक जमाने वाले प्रभास और क्यूट एक्ट्रेस श्रद्धा कपूर स्टारर एक्शन थ्रिलर फिल्म ‘साहो’ आखिरकार सिनेमाघरों में उतर चुकी है। फिर आइए करते हैं फिल्म की समीक्षा। 

फिल्म साहो में प्रभास
फिल्म : साहो

निर्माता : वी. वामसी कृष्णरेड्डी, प्रमोग उप्पलपति, भूषण कुमार

निर्देशक : सुजीत 

कलाकार: प्रभास, श्रद्धा कपूर, नील नितिन मुकेश, जैकी श्रॉफ, चंकी पांडे

जॉनर : एक्शन थ्रिलर 

रेटिंग : 1/5

लंबी-चौड़ी स्टारकास्ट और भारी-भरकम बजट लगाकर इस फिल्म का निर्माण किया गया है। प्रभास स्टारर इस फिल्म का हाइप मुहूर्त वाले दिन से जो शुरू हुआ है, वो फिल्म के पर्दे पर आने तक कायम रहा। सुजीत के निर्देशन में बनी इस फिल्म में श्रद्धा कपूर भी हैं। क्या कुछ है फिल्म की कहानी और कैसा है कथानक, आइए सब जानते हैं। 

कहानी 

उम्मीदों की जो टोकरी आप खुशी-खुशी लेकर थिएटर के भीतर जाते हैं, वो थोड़ी देर में ही असहनीय हो जाता है। कहानी के छोर को पकड़ने की कोशिश पूरी तरह से करते रहते हैं, लेकिन कन्फ्यूज़न इतना रहता है कि समझने में भी समय लग जाता है। 

ख़ैर, जो कहानी पकड़ पाए हैं, उसके मुताबिक इसमें एक चोर है और एक अंडर कलर एजेंट है। मुंबई में हुई एक बड़ी डकैती के बाद से इस कहानी की शुरुआत होती है। इस डकैती के बाद एक ब्लैक बॉक्स की तलाश शुरू होती है, जो कई सारे ट्विस्ट-टर्न्स से होते हुए गुजरती है। 

इस ब्लैक बॉक्स को हासिल करने के दौरान कई सारे किरदार आते हैं और कौन-सा किरदार किस तरफ है, उसे समझ पाना ‘लाल बुझक्कड़’ के बस की ही बात है। 

लबो-लुआब यह है कि आप फिल्म खत्म होने के बाद तय नहीं कर पाते हैं कि फिल्म रिवेंज़ ड्रामा है, चोर-पुलिस का क़िस्सा है या फिर किसी बड़ी डकैती के तह तक पहुंचने की कहानी है। कंफ्यूज़न से भरी फिल्म की कहानी यूं फैली की है कि समेटते-समेटते हाथ के दिमाग़ में दर्द हो उठेगा। 

समीक्षा

फिल्म ‘साहो’ की समीक्षा एक लाइन में करनी हो, तो ‘साहो: सह न पाओगे’। इतना ही काफी है। हालांकि, ‘सह’ न पाने के पीछे की वजहों को खोलना भी ज़रूरी है। इसलिए, सिलसिलेवार तरीके से आपको बताते हैं। 

बताया जा रहा है कि फिल्म का 350 करोड़ की लागत से बनाया गया है और इसे बनने में कुल दो साल लगे हैं। एक्शन सीन्स पर काफी ध्यान देने की बात भी कही जा रही थी। 

ख़ैर, यदि एक्शन के साथ यदि थोड़ा-बहुत ध्यान फिल्म की कहानी पर भी दे दिया जाता, तो शायद फिल्म इतनी ‘बकवास’ न बनती। बेमतलब गाड़िया उड़ाई जा रही हैं, उन्हें राख में तब्दील किया जा रहा है। 

निर्देशक साहब का ध्यान गाड़ियों को उड़ाने और बिल्डिंग को ढहाने में ही लगा रहा, बाकि फिल्म फिसलती चली गई। 

किरदारों के इतने उलट-फेर हैं कि समझ नहीं आता कि आखिर कौन ‘चोर’ है और कौन ‘सिपाही’। मामला यहीं नहीं थमता, फिल्म में ‘असली विलेन कौन’ नाम से भी गेम शो चल रहा था। 

फिल्म की रफ्तार इस कदर धीमी है कि दर्शक सो जाएं, लेकिन बीच-बीच में ठीक-ठाक गाने आ जाते हैं, जिनके लिए जबरदस्त लोकेशन को चुना गया है। वहीं फिल्म में जमकर वीएफएक्स का इस्तेमाल किया गया है, जिसे आसानी से देखा जा सकता है। 

मामला सिर्फ स्क्रिप्टिंग और डायरेक्शन में ही नहीं ‘फुस्स’ है, बल्कि एक्टिंग के लेवल पर भी इस फिल्म का बंटाधार हुआ है। फिल्म में प्रभास की लो-एनर्जी साफ नज़र आ रही थी। हालांकि, एंट्री सीन बढ़िया था। वहीं श्रद्धा कपूर का ओपनिंग सीन अच्छा था, लेकिन बाद में उनका किरदार कुछ का कुछ हो जाता है। मतलब एक कॉन्फिडेंट पुलिस ऑफिसर अचानक से ‘बेवकूफ़’ कैसे बन जाती है। 

ख़ास बात 

ज्यादा लिखने से अब उंगलियां भी बना कर रही हैं। समेटते हुए आखिरी वर्डिक्ट यह है कि फिल्म ‘साहो’ एक टिपिकल साउथ इंडियन फिल्म हैं, जिसे प्रभास को डाय-हार्ड फैन्स के लिए बनाया गया है। फिल्म में लॉजिक की तलाश करने वाले खुद को थिएटर से दूर ही रखें।