फिल्म समीक्षा : कामयाब

संजय मिश्रा की मुख्य भूमिका वाली फिल्म 'कामयाब' बीते काफी दिनों से चर्चा में रही, क्योंकि इस फिल्म को बैक करने यानी सपोर्ट करने के लिए शाहरुख खान मैदान में उतरे। हार्दिक मेहता के निर्देशन में बनी यह फिल्म 'एंटरटेनमेंट की आलू' की कहानी है। किसी भी सब्जी के साथ जिस तरह आलू को मिला कर बना लिया जाता, उसी प्रकार फिल्म लाइन में 'साइडकिक्स' कहे जाने वाले कलाकारों की है। उनके बिना फिल्म पूरी नहीं होती है, लेकिन उनका कोई वजूद बन नहीं पाता है। कैसी बनी है फिल्म, चरिए करते हैं रिव्यू।

sanjay mishra in film kaamyaab
फिल्म : कामयाब
निर्माता : गौरी खान, मनीष मूंदड़ा, गौरव वर्मा
निर्देशक : हार्दिक मेहता
कलाकार : संजय मिश्रा, दीपक डोबरियाल, ईशा तलवार, अवतार गिल
जॉनर : ड्रामा
रेटिंग : 3/5


फिल्म के हीरो, हिरोइन और विलेन को लेकर सभी बातें करते हैं, जबकि उस फिल्म में बाकी के किरदार निभाने वाले कलाकारों पर कोई ध्यान ही नहीं देता। गाहे-बगाहे उनके निभाये किरदार अलग छाप छोड़ जाते हैं, लेकिन उनको फिल्म के मुख्य कलाकारों का सा ट्रीटमेंट कभी नहीं मिलता। ऐसे कलाकारों को लोग एक्स्ट्रा, साइड एक्टर और सोफिस्केटेड तरीके से कहें तो कैरेक्टर आर्टिस्ट कह दिया जाता है। बस इसी तरह के एक कैरेक्टर आर्टिस्ट की ज़िंदगी में हार्दिक मेहता ने कोशिश की है।

कहानी

कहानी सुधीर (संजय मिश्रा) की, जो बॉलीवुड में अपने दौर में तकरीबन हर फिल्म में नज़र आता था। या यूं कहें कि उसका भी अपना एक दौर था, लेकिन अब वो फिल्म लाइन से खुद को अलग कर चुका है और अपनी बेटी, दामाद और नाती से भी दूर अकेला रहता है। सुधीर का डायलॉग 'बस इंजॉइंग लाइफ, और ऑप्सन थोड़ी है?' इतना मशहूर है कि आज भी लोग सोशल मीडिया में थड़ल्ले से फॉरवर्ड और पोस्ट करते हैं। सुधीर के डायलॉग को लोग भले ही याद किए हुए हैं, लेकिन सुधीर का नाम कोई नहीं जानता। फिर भी ज़िंदगी चल ही रही थी।

सुधीर की शांत ज़िंदगी में भूचाल तब आता है, जब उसका इंटरव्यू लेने एक एंटरटेनमेंट जर्नलिस्ट आती है। वो जर्नलिस्ट सुधीर को बताती हैं कि सुधीर ने 499 फिल्में कर ली हैं और वो एक फिल्म और कर ले, तो रिकॉर्ड बन जाएगा।

फिर क्या उस रिकॉर्ड को बनाने की सनक में सुधीर लग जाता है और कभी अपने शागिर्द, जो आज का कास्टिंग डायरेक्टर बन चुका है, गुलाटी (दीपक डोबरियाल) से मिलता है। वह सुधीर को एक रोल में कास्ट भी करती है, लेकिन इस सफर में उसे फिल्म इंडस्ट्री की कड़वी सच्चाईयों से रू-ब-रू होना पड़ता है। सुधीर का सपना, उसका सफर...सब देखने और समझने के लिए फिल्म देखनी होगी।

समीक्षा

हार्दिक मेहता ने स्क्रीनप्ले लिखा है, जबकि डायलॉग्स राधिका आनंद के हैं। फिल्म का कॉन्सेप्ट तो बेहतरीन है, लेकिन स्क्रिप्ट में कसर रह गई। फिल्म कई जगह पर कमज़ोर रह गई। फिल्म के नाटकीय रूपांतर को रचने के चक्कर में फिल्म के असल किरदार के उन पहलुओं को छूकर निकले, जिसे थोड़ा विस्तार देना था।

वहीं फिल्म का सेकेंड हॉफ स्लो है। हालांकि, फिल्म का क्लाइमैक्स शानदार गढ़ा गया है। पियूष पुटी की सिनेमैटोग्राफी सधी हुई थी, लेकिन संगीत के मामले में फिल्म काफी कमजोर रही।

अभिनय के मामले में संजय मिश्रा उम्दा रहे। संजय फिल्म में जितने किरदारों में दिखे, सभी में उनकी बॉडी लैंग्वेज कमाल की रही। वहीं कास्टिंग डायरेक्टर गुलाटी बने दीपक डोबरियाल भी अपनी छाप छोड़ जाते हैं।

वहीं सुधीर की बेटी बनी सारिका सिंह और स्ट्रगलिंग एक्ट्रेस ईशा तलवार भी ठीक-ठाक रहीं। अवतार गिल का कैरेक्टर भी दिलचस्प था।

फिल्म एक ख़ास वर्ग को काफी पसंद आने वाली है। इस फिल्म को 'फिल्म फेस्टीवल' वाली कैटेगरी में रखा जा सकता है, क्योंकि वहां इस फिल्म को ऑडियंस काफी पसंद करेंगे।

ख़ास बात

रियलिस्टिक सिनेमा आपको पसंद है, तो यह फिल्म आपके लिए ही है।