मजरूह सुल्तानपुरी : कम्युनिस्ट गीतकार, जिसने नेहरू से लिया था पंगा

'मजरूह' यानी 'घायल'। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी की आज पुण्यतिथि है। पेशे से हकीम, तबियत से शायर मजरूह सुल्तानपुरी ने नेहरू पर एक कविता लिखी, जिसमें 'हिटलर' का जिक्र था और फिर इसके लिए उन्हें दो साल तक जेल में डाल दिया गया। फिल्मी गीतों को वो 'नौटंकी' कहते थे, और शायरी से उनको 'इश्क़' रहा। भावनाओं को स्याही में डूबा कर कागज पर यूं उतारते थे कि पढ़ने वाला उसमें डूब जाए। पहले गीतकार, जिन्हें दादा साहब फाल्के खिताब से नवाज़ गया। चलिए, उनके सफर पर डालते हैं एक नज़र।

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लोगों की नब्ज़ को देखकर उनका इलाज़ करने वाला एक हकीम, जिसे शायरी का बड़ा शौक़ था। एक दिन इसी शौक़ के चलते वो मुशायरे में शामिल हुए और वहां पर एक फिल्मकार ने अपनी फिल्म में गीत लिखने को कहा। अब शायर, फिल्मों में गीत लिखे, तो तौबा, तौहीन न होगी। लिहाजा, जैसे शैलेंद्र ने कभी राजकपूर की फिल्म में लिखने को मना किया था। ठीक वैसे ही उस 'हकीम' ने भी निर्माता-निर्देशक की फिल्म में लिखने की मनाही कर दी। 

हालांकि, दूसरे मशहूर शायर, जिगर मुरादाबादी ने उस 'हकीम' शायर को गीत लिखने के मना ही लिया। फिर उस शायर ने जो गीत लिखा 'जब उसने गेसु बिखराए, बादल आए झूम के'। यह गीत फिल्म 'शाहजहां' से है, लेकिन इसी फिल्म का एक और गाना, जिसे के एल सहगल ने गाया है, 'जब दिल ही टूट गया, हम जी कर क्या करेंगे'। कहा जाता है कि उस वक्त के दिलफिग़ार आशिकों का एंथम था। यहां तक कि इसे गाने वाले के एल सहगल ने कई बार सार्वजनिक स्थलों पर कहा था कि मेरे जनाजे पर इस गाने को ज़रूर बजाया जाए। 

इस दिलफरेब गाने को लिखने वाले उस 'हकीम' शायर का नाम मजरूह सुल्तानपुरी है। हालांकि, जन्म के वक्त इनका नाम असरार उल हसन खान था, जिसे बाद में इन्होंने 'मजरूह' कर लिया और चूंकि उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर से आते हैं, तो उपनाम 'सुल्तानपुरी' रख लिया। वालिदेन के दिए नाम असरार उल हसन खान अब मजरूह सुल्तानपुरी हो गया। 

उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर में 1 अक्टूबर 1919 पठान मुस्लिम परिवार में जन्में मजरूह के पिता, पुलिस में थे। अपने बेटे को अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत से दूर रखना चाहते थे, लिहाजा मदरसे में भर्ती करवाया। मजरूह के वालिद की ख्वाहिश थी कि उनका बेटा आला हकीम बने और इसके लिए आर्युवेद के साथ यूनानी चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई करवाई। 

अब एक मिज़ाज शख्स को हकीम बनाने जाएंगे, तो क्या होगा। नब्ज देखकर इलाज़ करने वाला, हर्फों से दर्द निकालने का हुनर रह-रह कर निकलता रहा। फिर, लखनऊ में रहने के दौरान मुशायरों में शरीक होने लगे। लखनऊ से होते हुए मुंबई तक के मुशायरों में आए। मुंबई आए, तो नया पेशा मिल गया। भले ही इस पेशे को 'नौटंकी' कहते हों। 

'रहे न रहे हम महका करेंगे', 'जब दिल ही टूट गया' से लेकर 'मोनिका माय डार्लिग' तक उनकी कलम से खूब बहे। लगभग छह दशक तक हिन्दी फिल्म जगत को एक से बढ़ कर एक तराने दिए। साथ में अपनी शायरी भी करते रहे, क्योंकि पेशा तो ठीक है, लेकिन दिल का सुकून बड़ी चीज है। 

दिल के सुकून का जिक्र छिड़ा है, तो फिर उनके इश्क़ की अधूरी दास्तां भी सुना ही देते हैं। हुआ यह कि इन्हें एक तहसीलदार की बेटी से इश्क हो गया। रसूखदार बाप को यह इश्क़ मंजूर न था, फिर क्या मोहब्बत अधूरी रही और शायद 'जब दिल ही टूट गया' भी उसी पल उन्होंने लिखा होगा। 

मजरूह सुल्तानपुरी की 'नेहरू' पर लिखी वो कविता

साल 1949 में बंबई (मुंबई) के मिल मजदूरों की हड़ताल हुई और इस हड़ताल में मजरूह सुल्तानपुरी ने एक ऐसी कविता पढ़ी कि खुद को भारत के जवान समाजवादी सपनों का कस्टोडियन कहने वाली नेहरू सरकार आग-बबूला हो गई।

तत्कालीन गवर्नर मोरार जी देसाई ने अभिनेता बलराज साहनी और अन्य लोगों के साथ मजरूह सुल्तानपुरी को भी ऑर्थर रोड जेल में डाल दिया। साथ ही मजरूह सुल्तानपुरी को अपनी कविता के लिए माफी मांगने को कहा गया, जिसके एवज में जेल से आजादी का प्रस्ताव दिया गया।

मजरूह को अपनी कलम से ऊपर किसी का क़द मंजूर नहीं था, चाहे वो प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। लिहाजा साफ-साफ इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। दो साल की जेल उनको मंजूर थी। आजाद भारत में एक शायर अपने आजाद बोल के लिए दो साल सलाखों के पीछे रहा। आप भी पढ़िए, वो कविता...

'मन में ज़हर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा।
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए।
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए।
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए।'

अब दो साल जेल में रहने पर रोज़ी-रोटी का क्या होगा। एक परिवार भी तो है, जिसका गुज़ारा करना होता है, लेकिन इन सब बातों को मजरूह ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। हालांकि, इन दो सालों में सलाखों के पीछे से वो बकायदा लिखते रहे। 

बॉलीवुड के 'शोमैन' कहे जाने वाले राज कपूर उनसे मिलने आए, तो उन्होंने आर्थिक मदद की पेशकश की, जिसे तुरंत ही मजरूह ने ठुकरा दिया। फिर राजकपूर ने उनको अपनी अनाम फिल्म के लिए गीत लिखने के लिए मना लिया। जेल में रहते वक्त साल 1950 में मजरूह ने लिखा, 'इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...', जो साल 1975 में आई राजकपूर की फिल्म 'धर्म-कर्म' में इस्तेमाल किया गया। 

के एल सहगल से सलमान तक

मजरूह सुल्तानपुरी ने केएल सहगल से लेकर सलमान खान तक के लिए गाने लिखे। नौशाद से लेकर अनु मलिक और जतिन ललित, एआर रहमान और लेस्ली लेविस तक के साथ काम किया। उनके लिए कई गीत हमारी ज़िंदगी के हर पड़ाव पर रोशन है। फिल्म 'दोस्ती' के गाने 'चाहूंगा मैं तुझे' के लिए उनको फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। किसी भी पुरस्कार, औपचारिक सम्मान और किताब से कहीं ज्यादा ऊंचा वजूद रखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी को साल 1993 में 'दादा साहब फालके' अवार्ड से भी नवाजा गया।

खुद को मूलत: शायर मानने वाले मजरूह सुल्तानपुरी ने करीब 300 फिल्मों के लिए 4000 से ज्यादा गीत लिखे। इनमें से ज्यादातर को 'अमर गीतों' का दर्जा हासिल है। 24 मई, 2000 को मजरूह सुल्तानपुरी दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गए। 

जाते-जाते उनकी पसंदीदी पंक्तियां। 
‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर/लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।’

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