फिल्म समीक्षा : अलीगढ़

हंसल मेहता एक बार फिर अपने मिजाज की एक और फिल्म 'अलीगढ़' को लेकर दर्शकों के सामने आए हैं।हंसल उन निर्माता निर्देशकों में से हैं, जिनका काम पर्दे पर बोलता है और उन्होंने इस बात को अपनी नेशनल अवॉर्ड विनिंग फिल्म 'शाहिद' के माध्यम से भी साबित भी किया है। एक बार फिर सत्य घटना पर आधारित फिल्म के साथ हंसल उपस्थित हैं। इस फिल्म को मुंबई फिल्म फेस्टिवल, बुसान फिल्म फेस्टिवल और लंदन के फिल्म समारोह में भी दिखाया जा चुका है, जहां इसकी जमकर सराहना की गई। जोखिम उठाने वाले निर्देशकों में शुमार हंसल की यह नई कृत‍ि दर्शकों को थिएटर तक खींचने में कितनी सफल होती है, इस बात को वक्त पर छोड़ते हैं। फिलहाल इसकी समीक्षा करते हैं।

Manoj Bajpai in Movie Aligadh
फिल्म का नाम: अलीगढ़
निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, संदीप सिंह, हंसल मेहता
निर्देशक : हंसल मेहता
कलाकार : मनोज बाजपेयी, राजकुमार राव, आशीष विद्यार्थी, डेलनाज ईरानी और सुकेश अरोड़ा
संगीत : करन कुलकर्णी
सर्टिफिकेट : A
रेटिंग: 4 स्टार

‘सोच रहा हूं रिटायरमेंट के बाद अमेरिका चला जाऊं। हम जैसे लोगों के लिए वही जगह ठीक है।’ प्रोफेसर सिरास अंग्रेजी अख़बार के रिपोर्टर से जब यह कहता है, तो लगता है जैसे सार्वभौम याचिका दे रहा हो।

समलैंगिक होना कोई अपराध नहीं है। उनकी भी अपनी निजता है, अपने अधिकार हैं। ऐसे लोग 'सामान्य' न होने का दंश सहते रहते हैं। इस व्यवस्था से लड़ने के लिए उन्हें अदम्य साहस दिखाना होता है और उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। 

बॉलीवुड में गिनती के ऐसे निर्देशक हैं, जिनके लिए बॉक्स ऑफिस की कमाई मायने नहीं रखती। वो करोड़ क्लब से परे ऑफबीट फिल्म बनाने का माद्दा रखते हैं। यकीनन ऐसी फिल्मों का मार्केट बड़ा नहीं है। बावजूद इसके वो जोखिम लेते हैं और अपने मिजाज की फिल्में बनाते हैं।

तभी तो वे भीड़ में सबसे अलग हैं। उन्हीं चंद निर्देशकों में से हैं हंसल मेहता। इनकी फिल्म ‘अलीगढ़’ कुछ साल पहले अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हुई एक घटना पर आधारित है। 

हंसल की इस फिल्म को रिलीज से पहले बुसान फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया, जहां हर किसी ने इस फिल्म को जमकर सराहा, तो वहीं मुंबई के अलावा लंदन फिल्म फेस्टिवल में भी इस फिल्म को दिखाया गया। वहां भी फिल्म ने तारीफ बटोरी। अब यह फिलम भारतीय दर्शकों के सामने है।

कहानी

प्रोफेसर डॉक्टर एस. आर. सिरास यानी मनोज बाजपेयी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मराठी के प्रोफेसर हैं। यूनिवर्सिटी प्रशासन डॉ. सिरास को एक रिक्शा वाले युवक के साथ यौन संबंध बनाने के आरोप में बर्खास्त कर दिया जाता है।

बर्खास्तगी के साथ ही अगले सात दिनों के भीतर स्टॉफ क्वार्टर भी खाली करने का आदेश सुनाया जाता है। दिल्ली में एक अंग्रेजी अख़बार की रिर्पोटिंग हेड नमिता यानी डेलनाज ईरानी इस ख़बर पर नज़र रखे हुए हैं।

नमिता अपने अख़बार के युवा रिपोर्टर दीपू सेबेस्टियन यानी राजकुमार राव के साथ एक फोटोग्राफर को इस न्यूज की जांच पड़ताल करने के लिए अलीगढ़ भेजती है। अलीगढ़ आने के बाद दीपू को डॉ. सिरास तक पहुंचने के लिए काफी मुश्कि़लों का सामना करना पड़ता है। लेकिन आख़िरकार दीपू डॉ. सिरास तक पहुंचने और उनका भरोसा जीतने में कामयाब हो ही जाता है।

उसी दौरान दिल्ली में समलैंगिंग के अधिकारों के लिए काम करने और धारा 377 में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे एक एनजीओ के लोग प्रो. सिरास को अप्रोच करते हैं। प्रो. सिरास का केस इलाहाबाद हाई कोर्ट में पहुंचता है, जहां सिरस और एनजीओ की ओर से पेश ऐडवोकेट आनंद ग्रोवर ( आशीष विधार्थी) इस केस में प्रो. सिरास की ओर से पैरवी करते हैं।

हाईकोर्ट प्रो. सिरास को बेगुनाह मानकर यूनिवर्सिटी प्रशासन को 64 साल के प्रो. सिरास को बहाल करने का आदेश देती है। इसके बाद कहानी में नया मोड़ आता है, जो झकझोर देता है। इस फिल्म में बेहद संजीदगी से यह सवाल उठाया गया है कि क्या समलैंगिता अपराध है और ऐसा करने वाले का समाज द्वारा तिरस्कृत करना सही है?

अभिनय

घुटन, हिचकिचाहट, दर्द, अकेलापन, सदमा, त्रासदी जैसी न जाने कितनी बातें समेटे इस किरदार को मनोज बाजपेयी ने बड़ी आसानी से कर दिखाया है। वह ज्यादातर दृश्यों में सहज लगे हैं। आपत्तिजनक दृश्यों में ऐसा उत्साह कम देखने को मिलता है। एक ऐसे ही दृश्य में डर और भय भी उनके चेहरे पर दिखता है। नीचे देख कर एक दम सीधे चलना और बाहें मोड़ कर हमेशा कुछ सोचते रहना आदि उनकी भाव भंगिमाएं फिल्म में बांधे रखती हैं।

दूसरे छोर पर राजकुमार राव ने उनका अच्छा साथ दिया है। लेकिन सिरास के सामने दीपू का स्कोप काफी कम रह गया है। हालांकि, वह भी फिल्म का एक अहम किरदार हैं। इन दो के अलावा बाकी किसी के लिए फिल्म में जगह ही नहीं है। फिर भी एडवोकेट ग्रोवर के रोल में आशीष विद्यार्थी ने अपने रोल में ऐसी छाप छोड़ी है कि दर्शक उनके किरदार की चर्चा करते हैं।

निर्देशन

निर्देशक के तौर पर हंसल ने बहुत बारीकी से हर फ्रेम पर काम किया है। उन्होंने फिल्म के कई सीन्स रियल लोकेशन पर बखूबी शूट किए हैं। साथ ही हंसल ने प्रोफेसर के अकेलेपन को बेहद संजीदगी से पेश किया है।

बेशक इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार थोड़ी सुस्त है, लेकिन ऐसे गंभीर विषय पर बनने वाली फिल्म को एक अलग ट्रैक पर ही शूट किया जाता है, जिसमें हंसल पूरी तरह से कामयाब रहे हैं। हंसल ने फिल्म के लगभग सभी किरदारों से अच्छा काम लिया और कहानी की मांग के मुताबिक उन्हें अच्छी फुटेज भी दी है।

संगीत

ऑफबीट फिल्मों में गीत-संगीत की गुंजाइश ज़रा कम ही रहती है। ऐसी फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक की अहमियत अहम होती है। अलीगढ़ का बैकग्राउंड म्यूजिक दिल-ओ-दिमाग़ पर असर छोड़ता है। कहानी की मांग के अनुसार फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गानों को जगह दी है, जो प्रभावशाली है।

ख़ास बात

जिन्हें ऑफबीट और रियल लाइफ से जुड़ी घटनाओं पर बनी उम्दा फिल्मों को देखने में दिलचस्पी है, उनके लिए यह 'मस्ट वॉच' की कैटेगरी में आती है। साथ ही उम्दा अभिनय देखने की इच्छा हो, तो भी यह एक बेहतर विकल्प है। फिल्म में न मसाला है, न एक्शन, ना ही हीरो-हिरोइन के बीच का कोई रोमांस, लेकिन इसके बाद भी यह फिल्म आपको बांधे रखती है। 

संबंधित ख़बरें
फिल्म समीक्षा : तेरे बिन लादेन डेड ऑर अलाइव