Review: टीवीएफ की 'पंचायत' है गांव के क़िस्सों का गुच्छा

'ये मेरी फैमिली', 'पिचर्स', 'परमानेंट रूममेट' और 'गुल्लक' सरीखी वेब सीरीज़ बनाने वाले टीवीएफ यानी द वायरल फीवर की नई पेशकश 'पंचायत' है। 3 अप्रैल को यह अमेज़न प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम किया गया। टीवीएफ के प्रोडक्क्ट जितेंद्र कुमार के साथ सीरीज़ में नीना गुप्ता, रघुबीर यादव अहम किरदारों में हैं। चलिए देखें, कैसी लगी 'पंचायत'।

jitendra kumar in tvf's 'panchayat'
वेब सीरीज़ : पंचायत
डायरेक्टर : दीपक मिश्रा
क्रिएटर : TVF (द वायरल फीवर)
स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म : अमेज़न प्राइम वीडियो
कलाकार : जितेंद्र कुमार, रघुबीर यादव, नीना गुप्ता, फैसल मलिक, चंदन रॉय, पूजा सिंह आदि
लेखक : चंदन कुमार
एपिसोड संख्या : 8
रेटिंग : 4/5

द वायरल फीवर यानी 'टीवीएफ' की नई वेब सीरीज़ 'पंचायत' इस शुक्रवार को अमेज़न प्राइम पर स्ट्रीम की गई है। चंदन कुमार की लिखी यह लाइट हार्टेड कहानी, जिसे दीपिक मिश्रा ने डायरेक्ट की है, चुपके से काफी कुछ कह जाती है। दरअसल, यह कहानी नहीं, बल्कि क़िस्सों का गुच्छा है। चलिए शुरू करते हैं 'पंचायत' का सिलसिला। 

कहानी

यह कहानी है अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र) की। 12-15 लाख सलाना के पैकेज का ख्वाब देखने वाले इस लड़के को 20 हजार मासिक वेतन पर ग्राम सचिव की नौकरी मिलती है। अभिषेक, सचिव की जॉब जॉइंन करने से पहले अपने दोस्त से पूछता है और निष्कर्ष निकलता है कि घर पर खाली बैठने से बेहतर छोटी नौकरी करना। ख़ैर, 'बेगर्स हैव नो चॉइस' वाली फिलॉस्फी को फॉलो करता अभिषेक फुलेरा ग्राम पंचायत पहुंच जाता है। 

उत्तर प्रदेश का फुलेरा ग्राम पंचायत, जहां आज भी 24 घंटे बिजली की गारंटी नहीं है। हर रात यहां बिजली गुल होनी ही है। फुलेरा ग्राम पंचायत की प्रधान हैं मंजू देवी (नीना गुप्ता), लेकिन काम-काज संभालते हैं उनके पति (रघुबीर यादव), जो खुद को प्रधान-पति कहते हैं। 

यह जानकारी होते ही अभिषेक का दिमाग़ घूम जाता है, लेकिन नौकरी तो करनी ही है। इसलिए, तमाम आदर्श को एक किनारे रख कर थोड़ा रियलिस्टिक बनता अभिषेक चुपचाप अपने कार्यभार को संभाल लेता है और इसी बीच 'कैट' के एग्ज़ाम की तैयारी में जुट जाता है, ताकि आगे के लिए इस जॉब का वर्क एक्सपीरियंस काउंट हो। 

धीरे-धीरे कहानी आगे बढ़ती है और अभिषेक के सामने एक के बाद एक नई चुनौतियां आती हैं। दरअसल, इसे कहानी कहना उतनी सटीक नहीं है, बल्कि यह छोटे-छोटे क़िस्सों का पुलिंदा है। जहां आज लोग घोर मतलबी हो गए हैं, वहां गांव के ठेठ देसी अंदाज़ वाले लोगों में आज भी संवेदनशीलता बची हुई है। इस बात को कई बार 'पंचायत' चुपके से कह जाती है। 

लाखों के मासिक पैकेज के बारे में सोचने वाले अभिषेक के सामने सौ रुपये की अहमियत वाला क़िस्सा भी आता है। बाइक की सवारी, टीवी, कम्प्यूटर, चक्का वाली गद्देदार कुर्सी जैसी चीजें गांव के लोगों के लिए सपना ही है। महिला के नाम पर वोट लेकर उन्हें घर के चूल्हा-चौके तक सीमित करके पुरुष का निर्णयांक की भूमिका निभाना। एक-दूसरे के लिए खड़े रहने की आदत, ठेठ देसी अंदाज़, फिक्रमंद होना। सबकुछ एक के बाद एक सामने आता है।

'कैट' के एग्जाम में असफल होने के बाद अभिषेक को एक साल और इस गांव में ग्राम पंचायत के सचिव के तौर पर काम करना होगा, लेकिन उसने अपने कुछ दिनों के कार्यकाल में थोड़ा-बहुत बदलाव तो कर ही दिया था। गांव की प्रधान चूल्हा-चौका से झंडा फहराने और राष्ट्रगान गाने तक आ पहुंचीं। 

आठ एपिसोड की सीरीज़ जब पूरी होती है, तो लगता है कि इतनी जल्दी कैसे? हालांकि, इस सीरीज़ के नायक को पानी की टंकी पर चढ़ने के बाद एक साल और गांव में बिताने का बहाना मिल जाता है। अब इसके सेकेंड सीज़न का इंतज़ार अभी से दर्शकों को होने लगा है। रिंकी और अभिषेक की 'लव स्टोरी' बनती है, तो क्या मोड़ लेती है। जानने की दिलचस्पी ज़रूर जाग गई होगी। 

समीक्षा

इस वेब सीरीज़ को चंदन कुमार ने लिखा है और उन्होंने जिस बारीकी से गांव को स्क्रिप्ट में उतारा है, वो बेजोड़ है। उनकी जबरदस्त स्क्रिप्ट पर दीपिक मिश्रा ने बेहतरीन डायरेक्शन किया है। यह सीरीज़ आदर्श की बात नहीं करता है, यह रियलिस्टिक है। जबरदस्ती अभिषेक के दिल में गांव के लिए अचानक से 'कुछ कर गुजरने' की भावना नहीं जागती। वह तो बस अपना काम करना चाहता है। 

सीरीज़ को 'ऑरिजनल' टच देने के लिए फालतू की गालियां नहीं दिखाई गई है। हालांकि, गालियां नहीं है, ऐसा हम नहीं कहते, लेकिन सिचुएशन के हिसाब से जहां गालियां निकल जाती है। वही आपको यहां सुनने को मिलेंगी। कहानी को इंटरेस्टिंग बनाने के लिए फालतू से रंगबाज टाइप के विलेन को नहीं गढ़ा गया है। यहां चंदन परिस्थितियों से खेल गए हैं। 

किरदारों को बेवजह घुसाने की या उनको खींचने की कोशिश नहीं की गई है। विकास से लेकर उप-ग्राम प्रधान प्रह्लाद या फिर बाकी के गेस्ट अपीयरेंस वाले किरदार मास्टर जी (शशि वर्मा) या फिर सब इंस्पेक्टर (विश्वनाथ चटर्जी) सभी को दिलचस्प तरीक़े से दिखाया गया है। 

गांव का प्रधान, जो दिल का अच्छा है, पूरे गांव की फिक्र है, लेकिन पत्नी मंजू से डरता भी है और प्यार भी बहुत करता है। गांव में उसकी साख है, लेकिन गांववालों के लिए कुछ भी कर गुजरने से पीछे नहीं हटता। कंट्रास्ट और लेयर से भरपूर इस सीरीज़ में आप हंसते भी हैं और एकाध जगह पर भावुक भी हो जाते हैं। चंदन कुमार ने अच्छी सिचुएशन गढ़ी हैं और उतने ही शानदार डायलॉग्स हैं। 

एक्टिंग की बात करें, तो जितेंद्र कुमार मैदान मार ले गए हैं। 'शुभ मंगल सावधान' के बाद वो 'पंचायत' में फुल स्कोर करते हैं। लौकी छीलने से लेकर मैगी बनाते वक्त चेहरे पर दिखने वाली लाचारी या सब-इंस्पेक्टर की बेजा पूछताछ से झल्लाया सरकारी कर्मचारी, या फिर बुजुर्ग प्रधान पर हाथ उठाने वाले लफंगों की धुलाई, सभी तरफ जितेंद्र एक्टिंग के चौके-छक्के लगाते हैं। 

नीना गुप्ता ने मंजू देवी का किरदार काफी बारीकी से निभाया है। अपने काम में परफेक्ट होने का कॉन्फिडेंस, तो नया काम करने की ललक और घबराहट, बेटी की चिंता, तो वहीं पति को हिम्मत बंधाती और सही रास्ता दिखाती औरत। बॉडी लैग्वेज से लेकर डायलॉग डिलीवरी तक नीना एकदम उत्तर प्रदेश के किसी गांव की सामान्य सी महिला लगती हैं। 

वहीं रघुबीर यादव के बारे में क्या कहा जाये। इन्हें जिस भी किरदार में कहा जाए, ढल जाते हैं। कम अभिनेताओं में पानी की सी फितरत होती है और रघुबीर बिलकुल वैसे ही हैं। इनके किरदार को देखने के लिए सीरीज़ देखी जानी चाहिए। वहीं विकास बने चंदन रॉय और डिप्टी प्रधान ‘ऑफीसियल’ बने फैसल मलिक भी बेहतरीन रहे हैं। 
इनके अलावा अलग-अलग एपीसोड में आने वाले कलाकार भी उम्दा रहे, जैसे 'भूतहा पेड़' की कहानी की शुरुआत करने वाले मास्टर जी (शशि वर्मा), 'मॉनीटर चोरी' की पूछताछ करने आया सब-इंस्पेक्टर (विश्वनाथ चटर्जी) या फिर 'आत्माराम' की अम्मा सुषमा (ज्योति दूबे)। 

अमिताभ सिंह की सिनेमैटोग्राफी बढ़िया है। उन्होंने गांव की खूबसूरती को बखूबी कैमरे में कैद किया है। अमित कुलकर्णी की एडिटिंग की तारीफ होनी चाहिए।

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