'मुग़ल-ए-आज़म' में नौशाद ने संगीत देने से कर दिया था मना

'मुग़ल ए आज़म', 'बैजु बावरा', 'मदर इंडिया' और 'गंगा जमुना' सरीखी कितनी ही फिल्मों को दिलकश संगीत से सजाने वाले संगीतकार नौशद अली की आज पुण्यतिथि है। पिता की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर संगीतकार बने, तो वहीं शादी के वक़्त बताया कि वो मुंबई में 'दर्ज़ी' हैं। ऐसे ही कई और क़िस्से हैं, तो फिर चलिए कुछेक क़िस्से, जो आपके लिए बटोर लाएं हैं, उन्हें पढ़िए। 

Music Director Naushad Interesting anecdotes
हिन्दी संगीत जगत को एक से बढ़ कर एक सुरीले गीत देने वाले संगीतकार नौशाद अली की आज पुण्यतिथि है। 25 दिसंबर, 1919 को लखनऊ में पैदा हुए नौशाद अली ने छह दशकों में तकरीबन 67 फिल्मों में अपनी संगीत दिया। 5 मई 2006 को 86 वर्ष की उम्र में मुंबई में उनका निधन हो गया। 

नौशाद के लिए संगीतकार बनना इतना आसान नहीं था। पिता कचहरी में काम करते थे और उनको संगीत से सख्त नफरत थी, जबकि बेटे नौशाद के लिए संगीत ही ज़िंदगी। ऐसे में नौशाद छुप-छुपकर अपने शौक पूरे करते रहे, फिर भी पिता ने उनको रंगे हाथ पकड़ लिया।

इसके बाद पुरानी हिन्दी फिल्मों वाला सिचुएश, कड़क मिजाज पिता ने नौशाद के सामने रखी एक शर्त, 'या तो मुझे चुनो या फिर संगीत को'...इसका फैसला करने में नौशाद को तकलीफ तो हुई, लेकिन देरी नहीं। उन्होंने 'संगीत' को चुन लिया और अपना हारमोनियम लेकर मुंबई चले आए और फिर यहां पर हासिल किया अपना मुकाम। 

बांसुरी सुन हुए थे दीवाने 

संगीत को लेकर नौशाद में दिलचस्पी चार साल की उम्र में जागी। दरअसल, वो अपने मामू मुहिब्बुल्लाह के साथ देवां मेले में गए थे। इसी मेले में उन्होंने बांसुरी सुनी और फिर इसके दीवाने हो गए। फिर जब तक नौशाद लखनऊ में रहे, वो देवां मेला जाया करते थे। बांसुरी की दीवानगी उन पर इस तरह तारी थी कि स्कूल छोड़कर वो बांसुरी सुनने चले जाते थे। उनकी यह धुन बदस्तूर जारी रही।

नौशाद देर तक दुकान को देखते रहते थे

लखनऊ की भोंदूमल एंड संस की वाद्य यंत्रों की एक दुकान थी। इस दुकान को नौशाद खड़े होकर देखा करते थे। एक-दो बार तो किसी का ध्यान नहीं गया, लेकिन जब दुकान के मालिक ने लगातार यह होते देखा, तो उनको बुलाकर पूछ ही लिया कि वह दुकान के पास क्यों खड़े रहते हैं और इसे लगातार क्यों देखते रहते हैं। इसके जवाब में नौशाद ने कहा कि वो इस दुकान पर काम करना चाहते हैं। दरअसल, नौशाद इस दुकान पर सिर्फ इसलिए काम करना चाहते थे, ताकि इन वाद्य यंत्रों पर रियाज़ कर सकें। 

चोरी के जुर्म में मिला इनाम 

अब दुकान पर नौकरी मिल गई और नौशाद का रियाज़ भी शुरू था। एक दिन दुकान के मालिक ने नौशाद की चोरी पकड़ ली और फिर उनको जमकर डांट लगाई। हालांकि, बाद में नौशाद की बनाई धुन सुनकर इतने खुश हुए कि इनाम में हारमोनियम दे दिया और साथ में संगीत सीखने के लिए रॉयल टॉकीज में आर्केस्ट्रा बजाने वाले लड्डन मियां से उनके लिए सिफारिश कर दी। 

कई उस्तादों ने तराशा 

नौशाद ने उस्ताद गुरबत सिंह, उस्ताद यूसुफ अली और उस्ताद बब्बन साहब आदि से संगीत की शिक्षा ली। शुरुआत में उन्होंने लखनऊ के थिएटरों में साइलेंट फिल्म्स के प्रदर्शनों के दौरान हारमोनियम और तबला बजाने का काम भी किया।

तवायफ के कोठे पर जाते थे नौशाद 

नौशाद संगीत की बारीकियां सीखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। उनकी बायोग्राफी लिखने वाले चौधरी जिया इमाम कहते हैं, 'लाटूश रोड पर एक तवायफ रहती थी, जिसका नाम हस्सो था। तब के के जाने-माने उस्ताद बब्बन साहब उसे संगीत देते थे। अपने रोजमर्रा के कामों से समय निकालकर नौशाद भी वहां संगीत की बारीकियां सीखने चले जाया करते थे। बता दें कि नौशाद अपना आखिरी संगीत 'ताजमहल' फिल्म को दिया, जो 18 नवंबर 2006 को रिलीज हुई, लेकिन वे इससे पहले ही पांच मई 2006 को दुनिया को अलविदा कह गए। 

उधारी के 25 रुपये लेकर आए मुंबई 

अब जैसा कि आपको बता चुके हैं कि नौशाद ने पिता और संगीत में से संगीत को चुना और अपना हारमोनियन लेकर निकल पड़े, लेकिन अब वो जाते कहां, करते क्या?...आखिर में उन्होंने सोचा कि मुंबई यानी तब के बॉम्बे पहुंचा जाए। लखनऊ से मुंबई आने के लिए पैसे तो चाहिए। ऐसे में उनके एक दोस्त ने उनकी मदद की। साल 1937 में अपने दोस्त से 25 रुपये उधार लेकर लखनऊ से मुंबई के लिए निकल पड़े। मुंबई आने के बाद काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि फुटपाथ पर भी उन्होंने अपनी रातें गुजारीं। 

नौशाद को मिला पहला काम 

संघर्ष चल रहा था कि इसी दौरान उनकी मुलाकात निर्माता कारदार से हुई। बाद में कारदार ने संगीतकार हुसैन खान से सिफारिश की, तो नौशाद को 40 रुपए महीने पर पियानो बजाने का काम मिला। इसके बाद संगीतकार खेम चंद्र प्रकाश के सहयोगी के रूप में नौशाद ने काम किया। शुरुआत में कई फिल्म कंपनियों और संगीतकारों के साथ सहायक के रूप में काम किया। बाद में साल 1942 में एआर कारदार की फिल्म 'नई दुनिया' में पहली बार उन्हें संगीतकार के रूप में क्रेडिट मिला। 

'रतन' ने दिलाई सफलता

साल 1944 में आई फिल्म 'रतन' ने नौशाद को बतौर संगीतकारी स्थापित किया। फिल्म 'रतन' में अपने संगीतबद्ध गीत 'अंखियां मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना' की सफलता के बाद नौशाद 25 हजार रुपए पारिश्रमिक के तौर पर लेने लगे। इसके बाद उनकी फिल्म 'अनमोल घड़ी' आई, इसमें नूरजहां के भी गीत थे। फिर अगले दो दशक तक नौशाद की संगीत वाली तमाम फिल्मों ने सिल्वर, गोल्डन और डायमंड जुबली मनाई।

नौशाद ने पिल्म 'मदर इंडिया' फिल्म के लिए भी यादगार संगीत बनाया। यह पहली ऐसी भारतीय फिल्म थी, जिसे ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया था। एक संगीतकार के रूप में वो हरदम नए प्रयोग करते रहे हैं, तभी तो हिन्दी सिने जगत को कुछ नया मिलता रहा है। 

नौशाद ने लता मंगेशकर से बाथरूम में गाने को कहा 

अपने संगीत को लेकर गजब की दीवानगी थी। तभी तो उन्हें हिंदी फिल्मों में साउंड मिक्सिंग और संगीत-गायन में अलग रिकॉर्ड बनाने वाला पहला संगीतकार कहा जाता है। फिल्म 'आन' में 100 वाद्य यंत्रों वाले ऑर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया था। फिल्म 'मुगल-ए-आजम' के एक गाने में उन्होंने 100 लोगों के समूह से कोरस करवाया था। साथ ही 'प्यार किया तो डरना क्या' गाने के कुछ अंश के साथ भी उन्होंने प्रयोग किया, जिसके लिए नौशाद ने लता मंगेशकर से बाथरूम में गाना गाने को कहा और वहां लगे विशेष टाइल्स की गूंज को रिकॉर्ड कर गाने में नया प्रयोग किया था।

यही नहीं बल्कि फिल्म संगीत में एकॉर्डियन का सबसे पहले इस्तेमाल भी नौशाद ने ही किया। करीब छह दशक तक उन्होंने अपने संगीत से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में संगीत सम्राट नौशाद पहले संगीतकार हुए, जिन्हें सर्वप्रथम फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

शास्त्रीय गायकों से फिल्मों में करवाया गायन

वह नौशाद ही थे, जिन्होंने महान शास्त्रीय गायकों को फिल्मों में गाने के लिए राजी किया। उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद अमीर खान और पंडित डीवी पलुस्कर जैसे शास्त्रीय संगीत की महान विभूतियों ने फिल्मों में नौशाद के लिए ही गाए। आज भी हिंदी फिल्म उद्योग शास्त्रीय संगीत की इन महान विभूतियों द्वारा गाए गए गीतों पर गर्व करता है।

संगीतकार ही नहीं शायर भी थे नौशाद 

नौशाद संगीतकार ही नहीं, एक अच्छे शायर भी थे। उनकी रचनाओं का संग्रह 'आठवां सुर' नाम से प्रकाशित हुआ। उन्होंने फिल्म 'पालकी' फिल्म के लिए पटकथा भी लिखी थी। 

अपने जिगरी दोस्त गायक मोहम्मद रफी के निधन पर शे'र कहा, 'कहता है दिल कि दिल गया, दिलबर चला गया। साहिल पुकारता है समंदर चला गया।'

'मुग़ल-ए-आज़म' में संगीत देने से किया मना

नौशाद का व्यक्तित्व बेहद खुद्दार क़िस्म का था। फिल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' ने निर्देशक के आसिफ नौशाद से मिलने उनके घर आए, उस वक्त नौशाद हारमोनियम कुछ धुन तैयार कर रहे थे। आसिफ ने अपनी जेब से 50 हज़ार रुपयों का गड्डी निकाली और हारमोनियम पर फेंकते हुए अपनी फिल्म में संगीत देने को कहा। आसिफ की इस हरकत से नौशाद काफी गुस्सा हुए और वही नौटों की गड्डी उठा कर आसिफ के मुंह की तरफ उछाल दिया और उनकी फिल्म में संगीत देने से मना कर दिया। साथ ही कहा कि ऐसा उन लोगों के साथ करना, जो बिना एडवांस के फिल्मों में काम नहीं करते। 

आसिफ अपनी फिल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' के लिए नौशाद के पास आए थे। अब नौशाद गुस्से से तमतमाये हुए थे, तो आसिफ की एक न सुन रहे थे। हालांकि, बाद में मनाने पर नौशाद मान गए और फिर बिना फीस लिए उन्होंने इस फिल्म के लिए संगीत तैयार किया। 

दिलीप कुमार ने सीखा सितार बजाना

फिल्म 'कोहिनूर' में एक गाना है, 'मधुबन में राधिका नाचे रे'...इस गाने के लिए नौशाद ने दिलीप कुमार को सितार बजाना सिखाया था, ताकि गाने में वास्तविकता दिखाई दी। 

के एल सहगल से बिना शराब पिए गवाया गाना 

के एल सहगल बिना शराब पिए गाना नहीं गाते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि बिना शराब के वो बेसुरे हो जाते हैं, लेकिन उनकी इस गलतफहमी को नौशाद ने दूर किया। 

दरअसल, एक गाने की रिकॉर्डिंग के समय सहगल से नौशाद ने कहा कि आप बिना शराब पिए ही गाना गाएं। नौशाद के ऐसा कहने पर सहगल कुछ असहज हो गए, लेकिन नौशाद ने उनको भरोसा दिलाया। हालांकि, बाद में नौशाद की बात सहगल ने मान ली और उन्होंने गाना रिकॉर्ड किया। गाना था, 'जब दिल ही टूट गया, तो हम जी कर क्या करेंगे।'

मदन मोहन के एक गीत पर फिदा हुए नौशाद ने कही थी इतनी बड़ी बात 

अक्सर अपने समकालीन कलाकारों की तारीफ लोग कम ही करते हैं। हालांकि, नौशाद कुछ जुदा थे। वो अपने समकालीन कलाकारों की जमकर तारीफ करते थे। साठ के दशक में एक फिल्म आई थी, 'अनपढ़'। इस फिल्म का संगीत मदन मोहन ने दिया था। इसका एक गाना 'है इसी में प्यार की आबरू, वो जफा करें मैं वफा करूं' नौशाद को इतना भाया कि मदन मोहन की तारीफ में कहा, ' मेरा बनाया सारा संगीत मदन मोहन के इस एक गाने पर कुर्बान है।'

शकील बदायूंनी और मोहम्मद रफी का साथ 

नौशाद ने करीब छह दशक के अपने फिल्मी सफर में लगभग 70 फिल्मों में संगीत दिया। अब यदि उनके फिल्मी सफर पर नजर डालें, तो पाएंगे कि उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में गीतकार शकील बदायूंनी के साथ ही की हैं और वो हिट भी रही हैं। वहीं पसंदीदा गायक की बात करें, तो मोहम्मद रफी, नौशाद के पसंदीदा गायक थे। साथ ही उनके जिगरी दोस्त भी। 

कई दिग्गजों को दिया था ब्रेक 

नौशाद ने शकील बदायूंनी और मोहम्मद रफी के अलावा लता मंगेशकर, सुरैया, उमा देवी और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को भी फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रफी को पहली बार मौका देने वाले नौशाद ने उनसे कहा था, 'एक दिन तुम बहुत बड़े सिंगर बनोगे।' वहीं, सुरैया को महज 13 साल की उम्र में शारदा फिल्म में गाने का मौका दिया था। 

जब शादी के लिए बन गए 'दर्ज़ी'

नौशाद को अपनी पसंद की लड़की से शादी करनी थी, लेकिन मुसीबत यह कि यदि उन्होंने अपना पेशा बता दिया, तो फिर लड़की वाले शादी नहीं करेंगे, क्योंकि मौसिकी यानी संगीत को बुरा पेशा माना जाता है। इस मुसीबत से नौशाद को उनके दोस्त ने निकाला। 

उनसे दोस्त ने कहा कि क्यों न वे किसी दूसरे पेशे के बारे में झूठ-मूठ बोल दें। आखिरकार सब कुछ तय कर लिया गया और पूछे जाने वाले सवालों के जवाब मन में लेकर नौशाद साहब लड़की देखने पहुंचे। लड़की के माता-पिता से मुलाकात में नौशाद से पूछा गया, 'आप क्या करते हैं?'...इसके जवाब में नौशाद ने कहा, 'जी मैं दर्ज़ी हूं, लोगों के कपड़े सिलता हूं।'

अपनी बात को पुख्ता करने के लिए उन्होंने कहा, 'मैं अचकन और कुर्ता बहुत अच्छे से सिल लेता हूं।' फिर क्या था, नौशाद का यह झूठ काम कर गया और उनकी शादी पक्की हो गयी। 

मज़ेदार बात तो यह है कि नौशाद की शादी में उन्हीं के द्वारा तैयार कंपोजिशन बज रहा था और लोग खूब खुश थे। वह गाना था फिल्म 'रतन' का 'अंखिया मिला के जिया भरमा के ले नहीं जाना'। जब नौशाद ने वहां मौजूद अपने ससुराल वालों से इस गाने को लेकर पूछा, तो सबने कहा, 'बहुत शानदार है'। ये फीडबैक तो नौशाद की खुशी को दोगुना कर गया होगा। 

दादा साहब फाल्के और पद्मभूषण से सम्मानित 

साल 1981 में हिंदी फिल्मों के सबसे बड़े सम्मान 'दादा साहब फालके पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। इसके अलावा इस महान संगीतकार को भारत सरकार ने साल 1992 में पद्मभूषण से सम्मानित किया। इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी, लता मंगेशकर पुरस्कार, फिल्म फेयर पुरस्कार और अमीर खुसरो पुरस्कार जैसे कई अवॉर्ड भी मिल चुके हैं। इसके अलावा नौशाद की याद में डाक टिकट भी रिलीज किया गया था।

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टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
बहुत अच्छी जानकारी