इरफान खान के बेटे बाबिल ने बॉलीवुड को दिखाया आईना

इरफान खान के बेटे बाबिल खान ने सोशल मीडिया पर बॉलीवुड को लेकर अपना नज़रिया शेयर किया। उन्होंने एक लंबा-चौड़ा नोट लिखते हुए कहा, ' मेरे पिता ने अपना अधिकांश जीवन अभिनय की कला को ऊंचा करने में लगाया, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर वे सिक्स पैक एब्स वालों से मात खाते रहे।'

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दिवंगत अभिनेता इरफान खान के बेटे बाबिल ने बुधवार को इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट शेयर की। अपने इस नोट में बाबिल ने लिखा कि विश्व सिनेमा में बॉलीवुड को सम्मान नहीं मिलता है। 

उन्होंने लिखा, 'मेरे पिता ने अपना अधिकांश जीवन अभिनय की कला को ऊंचा करने में लगाया, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर वे सिक्स पैक एब्स वालों से मात खाते रहे।'

इस पोस्ट में अपने पिता की दो पुरानी तस्वीरों को भी बाबिल ने साझा किया है। इन तस्वीरों के साथ उन्होंने लिखा, 'आप जानते हैं सबसे अहम चीजों में से एक जो मेरे पिता ने मुझे सिनेमा के छात्र के रूप में मेरे फिल्म स्कूल जाने से पहले सिखाई थी, उन्होंने मुझे चेतावनी देते हुए कहा था कि मुझे खुद को साबित करके दिखाना होगा, क्योंकि विश्व सिनेमा में बॉलीवुड बेहद कम सम्मान मिलता है और इस वक्त मुझे भारतीय सिनेमा के बारे में जरूर बताना चाहिए, जो हमारे नियंत्रित बॉलीवुड से परे है।'

बाबिल आगे लिखते हैं, 'बॉलीवुड का सम्मान नहीं था। 60 से 90 के दशक के भारतीय सिनेमा के बारे में कोई जागरूकता या विश्वसनीयता नहीं है। वर्ल्ड सिनेमा सेगमेंट में भारतीय सिनेमा के बारे में 'बॉलीवुड एंड बियॉन्ड' नाम का सिर्फ एक लेक्चर था। वो भी शोर-शराबे वाली क्लास में निकल गया। यहां तक कि सत्यजीत रे और के.आसिफ के वास्तविक भारतीय सिनेमा के बारे में ढंग की चर्चा करना भी कठिन था। आप जानते हैं ऐसा क्यों है? क्योंकि हमने, भारतीय दर्शकों के रूप में विकसित होने से इनकार कर दिया।'

उन्होंने आगे लिखा, 'मेरे पिता ने पिछले दशक में बॉलीवुड की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अपना जीवन अभिनय की कला को ऊंचा करने में लगा दिया। उनकी लगभग पूरी यात्रा में उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर सिक्स पैक एब्स वाले ऐसे अभिनेताओं से मात खाई, जो बेहद नाटकीय वन लाइनर फिल्में दे रहे थे, जो वास्तविकता और भौतिक विज्ञान के नियमों के खिलाफ थीं। फोटोशॉप्ड आइटम गानों, धमाकेदार सेक्सिज्म और पितृसत्ता पर आधारित पुरानी परंपरा का प्रतिनिधित्व कर रही थीं।'

आगे लिखते हैं, '(और आपको इस बात को जरूर समझना चाहिए कि बॉक्स ऑफिस पर पराजित होने का मतलब है कि बॉलीवुड में निवेश का अधिकांश हिस्सा विजेताओं के पास जा रहा है, जो हमें एक दुष्चक्र में उलझा रहे हैं।) क्योंकि एक दर्शक के रूप में हमने वही चाहा, उसी का आनंद लिया। हमने सिर्फ मनोरंजन को तलाशा। इसलिए वास्तविकता के हमारे नाजुक भ्रम को तोड़ने से हम डरते हैं। इसलिए धारणा में किसी भी बदलाव को अस्वीकार कर देते हैं। सिनेमा की संभावना और मानवता और अस्तित्ववाद पर इसके निहितार्थ का पता लगाने के लिए किए गए सभी प्रयासों को अच्छे से अलग कर देते हैं।'

बदलाव के बारे में कहते हैं, 'अब यहां एक बदलाव है। हवा में एक नई सुगंध है। एक नया युवा, नया अर्थ खोज रहा है। हमें अपनी जमीन पर खड़ा रहना चाहिए। इस प्यास का गहराई से फिर से दमन नहीं होने देना चाहिए। एक अजीब-सी भावना व्याकुल कर देती है, जब बाल छोटे कराने की वजह से लड़के की तरह दिखने पर कल्कि को ट्रोल किया जाता है। ये संभावना का शुद्ध उन्मूलन है।'

आखिर में वो लिखते हैं, '(हालांकि मुझे बुरा लग रहा है कि सुशांत की मौत अब राजनीतिक बहसों का हिस्सा बनकर रह गई है, लेकिन यदि सकारात्मक बदलाव हो रहे हैं, तो हमें इसे गले लगाना चाहिए)'। 

बाबिल की इस पोस्ट पर सत्यजीत दूबे और विजय वर्मा ने भी प्रतिक्रिया दी है। विजय वर्मा ने लिखते हैं, 'हमने इरफान साहब से बहुत कुछ सीखा है और आशा है कि हम उस लौ को जलाए रखेंगे, जिसे उन्होंने आलोचकों से बचाकर रखा था। इरफानवाद जिंदा रहेगा। बाबिल तुम्हारे लिए प्यार और भावनाएं। तुम हम सभी के लिए बोला है।'



You know one of the most important things my father taught me as a student of cinema? Before I went to film school, he warned me that I’ll have to prove my self as Bollywood is seldom respected in world cinema and at these moments I must inform about the indian cinema that’s beyond our controlled Bollywood. Unfortunately, it did happen. Bollywood was not respected, no awareness of 60’s - 90’s Indian cinema or credibility of opinion. There was literally one single lecture in the world cinema segment about indian cinema called ‘Bollywood and Beyond’, that too gone through in a class full of chuckles. it was tough to even get a sensible conversation about the real Indian cinema of Satyajit Ray and K.Asif going. You know why that is? Because we, as the Indian audience, refused to evolve. My father gave his life trying to elevate the art of acting in the adverse conditions of noughties Bollywood and alas, for almost all of his journey, was defeated in the box office by hunks with six pack abs delivering theatrical one-liners and defying the laws of physics and reality, photoshopped item songs, just blatant sexism and same-old conventional representations of patriarchy (and you must understand, to be defeated at the box office means that majority of the investment in Bollywood would be going to the winners, engulfing us in a vicious circle). Because we as an audience wanted that, we enjoyed it, all we sought was entertainment and safety of thought, so afraid to have our delicate illusion of reality shattered, so unaccepting of any shift in perception. All effort to explore the potential of cinema and its implications on humanity and existentialism was at best kept by the sidelines. Now there is a change, a new fragrance in the wind. A new youth, searching for a new meaning. We must stand our ground, not let this thirst for a deeper meaning be repressed again. A strange feeling beset when Kalki was trolled for looking like a boy when she cut her hair short, that is pure abolishment of potential. (Although I resent that Sushant’s demise has now become a fluster of political debates, but if a positive change is manifesting, in the way of the Taoist, we embrace it.)
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