अलविदा निदा फ़ाज़ली साहब

'बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी मां', 'घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए' और 'होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है, इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िन्दगी क्या चीज़ है 'सरीख़े नज़्मों को लिखने वाले शायर और गीतकार निदा फ़ाज़ली नहीं रहे। अहसासों को लफ़्ज़ों में समेटने का हुनर ​​जो उनके पास था, कुछ बिखेर कर, तो कुछ ख़ुद के साथ समेट कर फानी दुनिया को अलविदा कह गए। पिता से विरासत में मिली शायरी के हुनर ​​को उन्होंने कुछ यूं तराशा था कि हर सुनने वाले की कानों से होता हुआ, ज़ेहन में उतर जाता था।

निदा फ़ाज़ली का 78 साल की उम्र में मुंबई में देहांत हो गया।
वे लंबे समय से बीमार थे और आखिरकार मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में जन्मे निदा साहब को शायरी विरासत में मिली थी। उनके पिता का नाम मुर्तुजा हसन और माता का नाम जमील फातिमा था।

वे अपने माता-पिता के तीसरी संतान थे। निदा साहब के घर में उर्दू और फारसी के दीवान, संग्रह भरे पड़े थे। उनके पिता मुतुर्जा हसन को भी शेरो-शायरी में काफी दिलचस्पी थी और उनका अपना काव्य संग्रह भी था, जिसे निदा फाजली अक्सर पढ़ा करते थे।

निदा साहब ने सूरदास की एक कविता से प्रभावित होकर शायर बनने का फैसला किया था। यह बात उस समय की है, जब उनका पूरा परिवार बंटवारे के बाद भारत से पाकिस्तान चला गया था, लेकिन निदा साहब ने हिन्दुस्तान में ही रहने का फैसला किया।

एक दिन वह एक मंदिर के पास से गुजर रहे थे, तभी उन्हें सूरदास की एक कविता सुनाई दी, जिसमें राधा और कृष्ण की जुदाई का वर्णन था। निदा साहब इस कविता को सुनकर इतने भावुक हो गए कि उन्होंने उसी क्षण फैसला कर लिया कि वह कवि के रूप में अपनी पहचान बनाएंगे।


उनका सफ़र

निदा फ़ाज़ली का पूरा नाम मुक्तदा हसन 'निदा फ़ाज़ली' था। जहां निदा का मतलब आवाज़ होता है और फ़ाज़ली कश्मीर का वह इलाक़ा है, जहां से वे आते हैं। कम लोग ही जानते होंगे कि निदा फ़ाज़ली उनका पेन नेम यानी लेखन का नाम है।

निदा साहब ने साल 1958 में ग्वालियर कॉलेज से ग्रेजुएशन पूरी की और अपने सपनों को एक नया रूप देने के लिए वह साल 1964 में मुंबई आ गए। मुंबई में बसर सोच के मुताबिक़ आसान न रहा। रोज़ी रोटी का कोई तो जरिया हो, सो उन्होंने धर्मयुग और ब्लिटज जैसी पत्रिकाओं मे लिखना शुरू कर दिया।

उनके लेखन की ख़ास शैली ने लोगों को अपना मुरीद बना लिया। तभी उर्दू साहित्य के कुछ प्रगतिशील लेखकों और कवियों की नज़र उन पर पड़ी, जो उनकी प्रतिभा से काफ़ी प्रभावित हुए थे।

निदा साहब के अंदर उन्हें एक उभरता हुआ कवि दिखाई दिया और उन्होंने निदा साहब को प्रोत्साहित किया और हर संभव मदद करने की पेशकश भी की। इसके अलावा उन्हें मुशायरों में भी आने का न्यौता आने लगा।

उन दिनों उर्दू साहित्य के लेखन की एक सीमा निर्धारित थी। निदा फ़ाज़ली, मीर और ग़ालिब की रचनाओं से बहुत प्रभावित थे। धीरे-धीरे उन्होंने उर्दू साहित्य की बंधी-बंधायी सीमाओं को तोड़ दिया और अपने लेखन का अलग अंदाज बनाया। इस बीच निदा साहब मुशायरों मे भी हिस्सा लेते रहे जिससे उन्हें पूरे देश भर में शोहरत हासिल हुई।

फिल्मों का सफर

सत्तर के दशक में मुंबई मे अपने बढ़ते खर्चे को देखकर उन्होंने फिल्मों के लिए भी गीत लिखना शुरू कर दिया। फिल्में सफल नहीं हो पा रही थीं, ऐसे में निदा साहब को अपना करियर डूबता हुआ नज़र आया। इसके बावजूद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपना संघर्ष जारी रखा। धीरे-धीरे मुंबई में उनकी पहचान बनती गई।

लगभग दस वर्ष तक मुंबई में संघर्ष करने के बाद साल 1980 में प्रदर्शित फिल्म 'आप तो ऐसे न थे' में पार्श्व गायक मनहर उधास की आवाज़ में अपने गीत 'तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है' की सफलता के बाद निदा साहब गीतकार के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे।

इस फिल्म की सफलता के बाद निदा साहब को और फिल्मों के प्रस्ताव मिलने लगे। इनमें 'बीबी ओ बीबी', 'आहिस्ता-आहिस्ता' और 'नजराना प्यार का' जैसी फिल्में शामिल हैं।
        
संघर्ष को दौर ज़ारी रहा, तभी इनकी मुलाक़ात संगीतकार खय्याम से हुई। खय्याम के संगीत निर्देशन में फिल्म 'आहिस्ता आहिस्ता' के लिए 'कभी किसी को मुक्कमल जहां नहीं मिलता' गीत लिखा, जिसे आशा भोंसले और भूपिंदर सिंह ने गाया।
  
साल 1983 निदा साहब के सिने करियर के लिए अहम पड़ाव साबित हुआ। फिल्म 'रजिया सुल्तान' के बनने के दौरान ही गीतकार जां निसार अख़्तर की आकस्मिक मृत्यु हो गई। इसके बाद निर्माता कमाल अमरोही ने निदा फ़ाज़ली से फिल्म के बाकी गीत को लिखने की गुज़ारिश की। इस फिल्म के बाद वह गीतकार के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए।

गजल सम्राट जगजीत सिंह ने निदा फ़ाज़ली के लिखे कई गीत गाए, जिनमें साल 1999 में आई फिल्म 'सरफरोश' का यह गीत 'होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है' भी शामिल है।

निदा साहब को साल 1998 में साहित्य के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और साल 2013 में पद्मश्री से नवाजा गया था। इसके अलावा और भी कई सिनेजगत के साथ साहित्य जगत के पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। वे प्रतिगतिशील वामपंथी आंदोलन से भी जुड़े रहे।

प्रमुख कृतियां

निदा फ़ाज़ली की शायरी की भाषा आम आदमी को भी समझ में आ जाती है। वे सहज भाषा में गूढ़ से गूढ़ बात कहने में माहिर थे। निदा फ़ाज़ली की कुछ प्रमुख कृतियां - 'आंखों भर आकाश', 'मौसम आते जाते हैं', 'खोया हुआ सा कुछ', 'लफ़्ज़ों के फूल', 'मोर नाच', 'आंख और ख़्वाब के दरमियां', 'सफ़र में धूप तो होगी 'आदि।


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